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Madhyamik Life Science Chapter – 1 Notes
1. A पादप में संवेदनशीलता एवं प्रतिचार (Sensitivity and Response in Plants)
संवेदनशीलता (Sensitivity):-
संवेदनशीलता किसी जीवधारी की वह
क्षमता है जिससे वे वातावरण में होने वाले परिवर्तनों को पहचानते हैं तथा उनके
अनुरूप प्रतिक्रिया देते हैं। जैसे:- पौधों का प्रकाश की दिशा में गति करना, छुई-मुई (Mimosa
Pudica) के पौधे का छूने पर मुरझा जाना, पौधों की जड़ो का जल की दिशा में अधिक बढ़ना आदि। पौधों में
तंत्रिका तंत्र नहीं होता है तथा वे एक हीं स्थान पर स्थिर रहते हैं। अतः वे
उद्दीपन का प्रतिचार धीमी गति से देते हैं।
उद्दीपन (Stimulus):-
वातावरण में होने वाले वे सभी परिवर्तन जिनके अनुरूप सजीव प्रतिक्रिया करते हैं, उन्हे उद्दीपन कहते हैं। उद्दीपन दो प्रकार के होते हैं – (a) वाह्य उद्दीपन : गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश आदि। (b)
आंतरिक उद्दीपन : हॉरमोन आदि।
पौधों में
संवेदनशीलता की खोज में जगदीश चन्द्र बोस का योगदान :- पौधों के शरीर में संवेदनशीलता की खोज में
आचार्य जगदीश चन्द्र बोस का योगदान बहुत हीं महत्वपूर्ण है। उन्होंने
क्रेस्कोग्राफ(Crescograph) नामक यंत्र का आविष्कार किया, जिससे
पौधों में विभिन्न उद्दीपनों के फलस्वरूप होने वाली प्रतिक्रिया को देखा जाता है।
उन्होने अपने प्रयोगों के माध्यम से यह प्रमाणित कर दिया कि पौधों में भी जीवन है
तथा वे जंतुओं के समान प्रतिक्रिया करते है। पौधे भी प्रकाश, दबाव, ऊष्मा आदि के अनुरूप प्रतिक्रिया देते हैं।अपने प्रयोग के
लिए उन्होने छुई-मुई तथा डेस्मोडियम गाइरेन्स (Desmodium Gyrans)
नामक पौधों का चुनाव किया। आचार्य बोस ने यह भी प्रमाणित कर दिया कि पौधे जंतुओं
के समान दर्द की अनुभूति करते है, वे भी उतने हीं संवेदनशील हैं जितने कि अन्य जीव-जन्तु।
पौधों में पोषण, वृद्धि तथा अन्य जैविक क्रियाओं का अध्ययन भी सर्वप्रथम
आचार्य बोस ने हीं प्रारम्भ किया था।
पौधों में होने वाली गति (Movements in plants)
v
गति (Movement)
: बाहरी उद्दीपनों के प्रभाव से सजीवों
का अपने ही स्थान पर हिलने-डुलने या किसी अंग की स्थिति में परिवर्तन लाने की
क्रिया को गति कहते हैं। यह पादप और जन्तु दोनों में देखि जाती है।
पौधों में गति तीन प्रकार की होती है : -
1. अनुचलन गति
(Tactic Movement) :- बाह्य उद्दीपनों के प्रभाव से पौधों में होने
वाली वह गति जिसमें पौधे का सम्पूर्ण शरीर स्थानांतरित हो जाता है, उसे अनुचलन गति कहते हैं। यह निम्न प्रकार से होता है:-
(i) प्रकाशानुचलन
(Phototactic Movement):- जब पौधों में स्थान परिवर्तन प्रकाश उद्दीपन के प्रभाव से
होता है तो इस प्रकार की गति को प्रकाशानुचलन गति कहते हैं। जैसे: बैक्टीरिया, शैवाल का मंद प्रकाश की ओर गति करना (क्लेमाइडोमोनास, वोल्वोक्स आदि)।
(ii) रसायनानुचलन (Chemotactic Movement):- जब पौधों में स्थान परिवर्तन रासायनिक उद्दीपन के प्रभाव से
होता है तो इस प्रकार की गति को रासायनानुचलन गति कहते हैं। इस प्रकार की गति
ब्रायोफाइटा तथा टेरिडोफाइटा संघ के पौधों में देखी जाती है।
(iii) तापानुचलन (Thermotactic Movement):- जब पौधों में स्थान परिवर्तन ताप उद्दीपन के प्रभाव से होता
है तो इस प्रकार की गति को तापानुचलन गति कहते हैं। जैसे :- क्लेमाइडोमोनास का
ठंडे जल से गरम जल की ओर गति करना।
2. अनुवर्तन
गति (Tropic Movement):-
वाह्य उद्दीपनों के प्रभाव से पौधों
के अंगों का उद्दीपन की दिशा में गति करना अनुवर्तन गति कहलाती है। अनुवर्तन गति
निम्न प्रकार से होती है:-
(i) प्रकाशानुवर्तन (Phototropic Movement):- प्रकाश के प्रभाव से पौधों के अंगों में होने वाली गति को प्रकाशानुवर्तन गति कहते हैं।
Ø
यदि
यह गति प्रकाश उद्दीपन की दिशा में होती है, तो इसे धनात्मक
प्रकाशानुवर्तन (Positive
Phototropism) कहते हैं।
जैसे:- तना और शाखा में धनात्मक प्रकाशानुवर्तन होता है।
Ø
यदि
यह गति प्रकाश उद्दीपन के विपरीत दिशा में होती है, तो इसे ऋणात्मक
प्रकाशानुवर्तन (Negative
Phototropism) कहते हैं।
जैसे:- जड़ों में ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन होता है।
(ii) जलानुवर्तन (Hydrotropic Movement) :- जल
स्रोत के प्रभाव से पौधों के अंगों में होने वाली गति जलानुवर्तन गति कहलाती है।
Ø
यदि
यह गति जल स्रोत की दिशा में होती है, तो इसे धनात्मक जलानुवर्तन (Positive Hydrotropism) कहते है। जैसे: जड़ का जल स्रोत की दिशा में बढ़ना ।
Ø
यदि
यह गति जल स्रोत के विपरीत दिशा में होती है, तो इसे ऋणात्मक
जलानुवर्तन (Negative
Hydrotropism) कहते हैं।
जैसे:- तनों का जल के विपरीत दिशा में गति करना।
(iii) गुरुत्वानुवर्तन (Geotropic Movement) :- पृथ्वी
के गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से पौधों के अंगों में होने वाली गति को
गुरुत्वानुवर्तन गति कहते हैं।
Ø
यदि
यह गति गुरुत्वाकर्षण बल की दिशा में होती है, तो इसे धनात्मक
गुरुत्वानुवर्तन (Positive
Geotropism) कहते हैं।
जैसे:- जड़ों में धनात्मक गुरुत्वानुवर्तन होता है।
Ø
यदि
यह गति गुरुत्वाकर्षण बल की विपरीत दिशा में होती है, तो इसे ऋणात्मक
गुरुत्वानुवर्तन(Negative
Geotropism) कहते हैं।
जैसे:- तनों में ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्तन होता है।
(iv) रसायनानुवर्तन (Chemotropic Movement) :- रासायनिक पदार्थों के प्रभाव से
पौधों में होने वाली गति को रसायनानुवर्तन कहते हैं। जैसे:- पराग कणों का अंडाशय
की ओर गति करना।
3. अनुकुंचन
गति (Nastic Movement):- जब
पौधों के अंगों की गति बाह्य उद्दीपन की दिशा से प्रभावित न होकर उद्दीपन की
तीव्रता से प्रभावित हो कर होती है, तो इस प्रकार की गति को अनुकुंचन गति कहते हैं। यह गति निम्न प्रकार की होती है:-
(i) प्रकाशानुकुंचन (Photonasty):- प्रकाश की तीव्रता से प्रभावित हो कर होने वाली गति
प्रकाशानुकुंचन गति कहलाती है। जैसे:- सूर्योदय होते हीं कमल के फूल का खिलना तथा
सूर्यास्त के साथ बंद हो जाना।
(ii) तापानुकुंचन (Thermonasty):- ताप की तीव्रता से प्रभावित होकर पौधों के अंगों में होने
वाली गति को तापानुकुंचन गति कहते हैं। जैसे:- ताप बढ़ने पर
ट्यूलिप (Tulip) और केशर (Crocus) के फूलों का खिलना तथा ताप कम होने पर बंद हो जाना।
(iii) निशानुकुंचन (Nyctinasty):-
ताप और प्रकाश दोनों के सम्मिलित प्रभाव से प्रभावित हो कर होने वाली गति
निशानुकून्हन कहलाती है। जैसे:
Oxalis के पत्रकों में होने वाली गति।
(iv) कंपानुकुंचन (Seismonasty):- स्पर्श, घर्षण, आघात आदि यांत्रिक उद्दीपनो के प्रभाव से होने वाली गति को
कंपानुकुंचन गति कहते हैं। जैसे:- छुई-मुई के पौधे को छूते हीं उसके पत्रकों का मुरझा जाना।
(v) रसायनानुकुंचन (Chemonasty):- रासायनिक पदार्थों के प्रभाव से होने वाली गति रसायनानुकुंचन गति कहते हैं। जैसे:- सनड्यू (Sundew) पौधे के टेंटीकल्स का मुड़ना।
अनुचलन, अनुवर्तन तथा अनुकुंचन गति की तुलना
अनुचलन गति |
अनुवर्तन गति |
अनुकुंचन गति |
1.
यह गति उद्दीपन की दिशा पर निर्भर करती है। 2.
इस प्रकार की गति में प्रचलन होता है। 3.
यह निम्न वर्ग के पौधों में होता है। 4.
इसमें पौधों की वृद्धि नहीं होती है। |
1.
यह गति उद्दीपन की दिशा पर निर्भर करती है। 2.
इस गति में प्रचलन नहीं होता है। 3.
यह उच्च वर्ग के पौधों में होता है। 4.
इसमें पौधों की वृद्धि होती है। |
1.
यह गति उद्दीपन की तीव्रता पर निर्भर करती है। 2.
इस गति में प्रचलन नहीं होता है। 3.
यह भी उच्च वर्ग के पौधों में होता है। 4.
इसमें पौधों की वृद्धि नहीं होती है। |
1.B पादप हॉरमोन (Plant Hormones)
1. पादप हार्मोन (Plant Hormone):-
पादप हार्मोन मुख्यतः पौधों की वृद्धि
को नियंत्रित करते हैं। पौधों में पाए जाने वाले हॉर्मोन को फाइटो हार्मोन (Phyto hormone) कहते हैं। पौधों में निम्न हार्मोन पाए जाते है:-
(a) ऑक्सिन (Auxin):-
इसका रासायनिक नाम इंडोल एसिटिक अम्ल (Indole Acetic Acid or IAA) है।
संश्लेषण
केन्द्र
(Site of synthesis):-
ऑक्सिन तने एवं जड़ों के अग्रस्थ भागों
के प्रविभाजी उत्तकों में उत्पन्न होता है।
कार्य(Function):-
(i) ऑक्सिन पौधों की वृद्धि को नियंत्रित
करता है। (ii) यह पौधों के अनुवर्तन गति (Tropic movement) को
प्रभावित करता है। (iii) यह पत्तियों एवं फलों को समय से पूर्व गिरने से रोकता है। (iv) यह कलिकाओं एवं पुष्पों के विकाश में सहायता करता है।
(b) जिब्रेलिन (Gibberellin):-
इसका रासायनिक नाम जिबरेलिक अम्ल है।
संश्लेषण
केंद्र(Site of
synthesis):- जिबरेलिन पके बीजों,
अंकुरित पौधो,बीज पत्र,
पत्तियों, अग्रस्थ कलिकाओं
तथा जड़ों के शीर्ष भागों में संश्लेषित होता है।
कार्य(Function) :-
(i) यह पौधों को अधिक लम्बाई प्रदान करता
है। (ii) यह
बीजों के अंकुरण में सहायक है। (iii) यह पत्तियों,
फूलों, एवं फलों के
आकार को बढ़ाता है। (iv) यह कोशिका विभाजन में सहायक है।
(c) काइनिन (Kinin or Cytokinin):- यह नाइट्रोजन
युक्त कार्बनिक क्षार है।
संश्लेषण
केंद्र(Site of
synthesis) :-
काईनिन अधिकतर फलों जैसे केला, सेब,
टमाटर, बेर, मक्का आदि तथा भ्रुण-पोष उत्तकों
में होता है। ये Coconut
milk में अधिक पाया जाता है।
कार्य (Function) :-
(i) यह हार्मोन कोशिका विभाजन में सहायक है। (ii) यह बीजों के अंकुरण में सहायक है। (iii) यह
प्रोटीन तथा RNA के संश्लेषण में सहायक है। (iv) यह
लवक (Plastid) का विकाश कर क्लोरोफिल के विनाश को रोकता है। जिससे पौधे
जल्दी बूढ़े नहीं होते है।
(v) यह कलिकाओं को विकसित करने में सहायता
करता है।
पादप शरीर में विभिन्न कार्यों के
नियंत्रण में हॉरमोन की भूमिका :-
पौधों में कोई तंत्रिका तंत्र नहीं
पाया जाता है। उनके शरीर में सभी क्रियाओं का नियंत्रण एवं समन्वय का कार्य
रासायनिक पदार्थों से होता है, जिन्हें हॉरमोन कहते हैं। पौधों के शरीर में वृद्धि और अन्य
मेटाबोलिक क्रियाएँ हॉरमोन द्वारा नियंत्रित की जाती हैं। वातावरण में होने वाले
परिवर्तन या उद्दीपन के लिए प्रतिक्रिया देने में भी हॉरमोन का योगदान महत्वपूर्ण
है। पादप हॉरमोन पौधों को निश्चित आकार
देने के साथ-साथ, बीज के विकास, फल के विकास, पत्तियों एवं फलों को गिरने से रोकते हैं। ये पौधे में होने
वाली विभिन्न प्रकार की अनुवर्तन गति को भी नियंत्रित करते हैं। हॉरमोन के अभाव
में पौधों का समुचित विकास नहीं हो पाता है।
कृत्रिम या संश्लेषित हार्मोन (Synthetic Hormones):- वे
हार्मोन जिन्हें कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में बनाया जाता है, उन्हें कृत्रिम हार्मोन कहते हैं। जैसे:- NAA (Naphthalene Acetic Acid), IBA
(Indole Butyric Acid) तथा IPA (Indole Propionic Acid) । कृत्रिम हॉरमोन का प्रयोग कर बीजरहित फल उत्पन्न करने की
विधि को पार्थेनोकार्पी (Parthenocarpy)
कहते हैं।
कृषि
में उपयोग :- (i) बीज रहित फल प्राप्त करने में। (ii) पौधे के
आनुवांशिक बौनेपन को दूर करने में। (iii) अतिरिक्त घासों को नष्ट करने में। (iv) समय से
पहले फल-फूल प्राप्त करने में। (v) पत्तियों को झड़ने से बचाने के लिए।
1.C जंतु हार्मोन (Animal Hormone)
परिभाषा (Definition ) :- वे
जटिल कार्बनिक पदार्थ जो अंतः स्रावी ग्रंथियो द्वारा उत्पन होते है तथा शरीर की समस्त
जैव रासायनिक क्रियाओ के नियंत्रण,
नियमन एवं समन्वय में सहायता करते है ,उन्हे॑ हार्मोन कहते है।
हार्मोन की विशेषताएं या गुण (Properties or characteristics of Hormone ):-
(i)
हार्मोन कम अणुभार वाले जटिल कार्बनिक
यौगिक है।
(ii)
ये अपने उत्पत्ति स्थान से दूर स्थित
अंगों को प्रभावित करते है।
(iii)
ये कार्य समाप्ति के बाद नष्ट हो जाते
है।
(iv)
ये जल में अतिघुलानशील होते हैं।
(v)
ये बहुत कम मात्र में उत्पन्न होते हैं
तथा कम सांद्रता में क्रियाशील होते हैं।
Ø समस्त रीढ़धारियों के शरीर में दो प्रकार की ग्रन्थियां पाई जाती
हैं:-
1. बहिः स्रावी ग्रंथियाँ (Exocrine glands):- वे ग्रंथियां
जो अपने स्राव को नलिकाओं के माध्यम से विभिन्न अंगों तक भेजतीं हैं, उन्हें बहिः स्रावी ग्रंथि कहतेहै। जैसे- यकृत,
लार ग्रंथियां इत्यादि।
2. अंतः स्रावी ग्रंथियाँ (Endocrine glands):- वे
ग्रंथियां जो अपने स्राव को सीधे रक्त में मुक्त करती हैं, उन्हे अन्तः
स्रावी ग्रंथि कहते है। इनके स्राव के लिए कोई विशेष नलिका नहीं पाई जाती है। जैसे:- पीयुष ग्रंथि,
थायरायड ग्रंथि, एड्रिनल ग्रंथि इत्यादि।
Ø मिश्रित ग्रंथि(Mixed Glands) :-
वह ग्रंथि जो बहिः स्रावी तथा अन्तः स्रावी
दोनों की तरह कार्य करती है,उसे मिश्रित ग्रंथि कहते हैं। जैसे:- अग्नाशय(Pancreas), वृषण
(Testis) तथा अंडाशय (Ovary)।
हाइपोथैलामस (Hypothalamus):- यह
अग्र मस्तिष्क का भाग है। यह भूख, प्यास, नींद, भोजन ग्रहण आदि को नियंत्रित करता है। इसकी कोशिकाओं से
स्रावित हार्मोन पीयूष ग्रंथि के स्राव को नियंत्रित करता है। हाइपोथैलामस से
दो प्रकार के हार्मोन का स्राव होता है।
Ø उत्तेजक हार्मोन –
जैसे:- गोनेड्राफिन हार्मोन,
पीयूष ग्रंथि के स्राव को प्रेरित करता है।
Ø निरोधक हार्मोन –
जैसे:- सोमेटोस्टेटिन हार्मोन,
पीयूष ग्रंथि से स्रावित वृद्धि हार्मोन (GH)
के लिए निरोधक का कार्य करता है।
Æ “हार्मोन को रासायनिक
दूत कहा जाता है
(Hormones are called chemical messengers)”
हार्मोन को रासायनिक
दूत कहा जाता है क्योंकि ये जिस स्थान से स्रावित होते हैं, उस स्थान से दूर जा कर किसी अन्य अंग को प्रभावित करते हैं तथा
जैविक क्रियाओं का नियमन करते हैं।
Æ “हार्मोन को रासायनिक संयोजक भी कहा जाता है (Hormones are called Chemical
coordinator)”
हार्मोन शरीर
के विभिन्न अंगों के बीच समन्वय स्थापित करते हैं तथा शारीरिक क्रियाओं के नियमन में
सहायता प्रदान करते है। इसीलिए इन्हें रासायनिक संयोजक कहां जाता है।
Æ “पीयूष ग्रंथि को मास्टर ग्रंथि भी कहा जाता है (Pituitary Gland is called Master Gland)”
पीयूष
ग्रंथि को मास्टर ग्रंथि कहते हैं क्योंकि इससे निकलने वाले हार्मोन शरीर की कई
जैविक क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं। साथ हीं, पीयूष ग्रंथि से निकलने वाले
हार्मोन अन्य कई ग्रंथियों को स्राव को भी नियंत्रित करते हैं। अतः पीयूष ग्रंथि
को मास्टर ग्रंथि कहते हैं।
Æ “अग्नाशय को मिश्रित ग्रंथि कहते हैं ( Pancreas is called mixed gland)”
अग्नाशय अन्तःस्रावी तथा बहिःस्रावी दोनों हीं ग्रंथियों की तरह कार्य करता है। अतः इसे मिश्रित ग्रंथि कहते हैं।
पीयूष ग्रंथि (Pituitary Gland) :- यह अत्यंत छोटी अन्तः स्रावी ग्रंथि है। पियूष ग्रंथि के अग्र भाग से कई महत्वपूर्ण हॉर्मोन स्रावित होते है।
(i) ACTH (Adreno Cortico Tropic
Hormone):-
कार्य:- (i) यह
एड्रिनल ग्रंथि के कार्टेक्स भाग को उत्तेजित करता है।
(ii)
यह एड्रिनल ग्रंथि के कार्टेक्स भाग की
वृद्धि को नियंत्रित करता है तथा उससे होने वाले स्राव को नियंत्रित करता है।
Æ इसकी कमी से
Addition’s Disease हो
जाती है। इसकी अधिकता से कशि॑ग सिंड्रोम (Cushing's Syndrome) होता है।
(ii) STH or GH (Somato Trophic
Hormone or Growth Hormone):-
कार्य:- (i) यह
शरीर की सामान्य वृद्धि को नियंत्रित करता है। (ii) यह
प्रोटीन, वसा तथा कार्बोहाइड्रेट के चयापचय में सहायता करता है। (iii) यह अस्थियों की वृद्धि को नियंत्रित करता है।
Æ इसकी कमी से बच्चो में बौनापन का रोग होता है। इसकी अधिकता से
बच्चों में लम्बापन
(Gigantism) तथा वयस्कों
में एक्रोमिगेली
(Acromegaly) नामक रोग होता
है।
(iii) TSH (Thyroid Stimulating
Hormone):-
कार्य:- (i) यह
थायरायड ग्रंथि के सामान्य विकास को नियंत्रित करता है। (ii) यह
थाइराक्सिन हॉर्मोन के स्राव को नियंत्रित करता है।
(iii)
यह आयोडीन के चयापचय को नियंत्रित करता
है।
Æ इसकी कमी से थायरायड ग्रंथि की सक्रियता कम हो जाती है। इसकी अधिकता
से थायरायड ग्रंथि का आकार बढ़ जाता है।
(iv) GTH (Gonado Trophic
Hormone):-
यह स्त्रियों तथा पुरुषों के जननांगों
को प्रभावित करता है। यह दो प्रकार का होता है।
(a) FSH (Follicle Stimulating Hormone):- इसके निम्नलिखित कार्य हैं –
मादा
में:- (i) यह
अंडाशय (Ovary) की वृद्धि को नियंत्रित करता है। (ii) यह ग्राफियनफॉलिकल के विकास को नियंत्रित करता है।
(iii)
यह इस्ट्रोजेन (Oesterogen) के स्राव को नियंत्रित करता है।
नर
में :- (i) यह
वृषण में शुक्रकीट (Sperms) के निर्माण में सहायक है। (ii) यह
वृषण (Testis) के विकास में सहायक है।
(b) LH or ICSH (Luteinizing
Hormone):-
इसके निम्नलिखित कार्य हैं –
मादा
में :- (i) यह
अंडाशय से अंडा निकलने में सहायता करता है। (ii) यह
कार्पस ल्युटियम के निर्माण में सहायत करता है ।
(iii)
यह प्रोजेस्ट्रोन (Progesterone) के स्राव में सहायता करता है।
नर
मे:- (i) यह
नर के वृषण द्वारा टेस्टोस्टेरान
(Testosterone) हॉर्मोन के स्राव में सहायता करता है।
Ø थायरायडग्रंथि (Thyroid Gland) :-
यह ग्रंथि ट्रेकिया (श्वास नली) के दोनों
तरफ द्वितीय तथा चतुर्थ कार्टिलेज रिंग के मध्य स्थित होता है। इससे थाइराक्सिन नामक
हॉर्मोन का स्राव होता है।
·
थाइराक्सिन
हॉर्मोन के कार्य
:-
(i)
यह बेसल मेटाबोलिक दर (BMR) को नियंत्रित करता है। (ii)
यह रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित
करता है। (iii) यह शरीर के तापक्रम को निय॑त्रित करता है। (iv)
यह RBC के
निर्माण में सहायता करता है।
(v) यह हृदयगति को नियंत्रित करता है।
Æ इसकी कमी से बच्चों में Cretinism तथा
वयस्कों में घेंघा
(Goiter) नामक रोग होता है। इसकी अधिकता से
ग्रेव का रोग (Grave’s
disease) होता है।
Ø एड्रिनल ग्रंथि (Adrenal Gland) :- यह
किडनी के ऊपऊी हिस्से में दोनों तरफ स्थित होता है। यह त्रिभुजाकार होता है तथा इसकी
संख्या दो होती है। इसके बाहरी भाग को कार्टेक्स तथा भीतरी भाग को मेडूला कहते है।
इससे एड्रीनलीन नामक हॉर्मोन निकलता है।
Æ एड्रीनलीन हॉर्मोन को आपातकालीन हार्मोन या Emergency Hormone भी कहते है,
क्योंकि यह आपातकालीन स्थिती में स्रावित
हो कर सही निर्णय लेने में
सहायता
करता है।
कार्य:- (i)
यह हृदय गति को बढ़ा देता है। (ii) यह
रक्तचाप को बढ़ा देता है। (iii) यह
BMR को बढाता है। (iv) यह आँख के तारा
(Pupil) के आकर को बढ़ा देता है। (v) यह आपातकालीन स्थिति में स्रावित हो कर सही निर्णय लेने में मदद
करता है।
v इस्ट्रोजेन या
एस्ट्रोजेन या अस्ट्रोजन (Oestrogen):- यह एक प्रकार का मादा हॉर्मोन है जो मादा में ग्राफ़ियन फॉलिकल से
स्रावित होता है।
कार्य :- (i) यह
अंडाशय के वृद्धि एवं विकास में सहायक है एवं अंडाशय को उत्तेजित करता है। (ii) यह मादा जननांगों की वृद्धि को प्रभावित करता है। (iii) स्त्रियों के मासिक चक्र (Menstrual Cycle)
के नियमन में सहायक है। (iv) यह मादा के गौण लैंगिक लक्षणों के विकास में सहायक है। (iv) स्त्रियों में यौनावस्था में शारीरिक वृद्धि प्रदान करना।
v प्रोजेस्ट्रोन (Progesterone) :-
यह एक प्रकार का मादा हॉर्मोन है जो अंडाशय
के कार्पस ल्यूटियम से स्रावित होता है।
कार्य :- (i) यह
अंडाशय, योनि(Vagina) और स्तन के विकास में सहायक है। (ii) स्त्रियों
के गर्भधारण (Pregnancy) करने एवं स्तन(Breast) के उन्नत होने में सहायक है। (iii)
भ्रूण के विकास में सहायक है।
v टेस्टोस्टेरॉन (Testosterone):- यह
एक प्रकार का नर हार्मोन है। यह वृषण (Testis)
से स्रावित होता है।
कार्य :- (i) यह
नर जननांगों की वृद्धि में सहायक है।(ii)
यह प्रोटीन संश्लेषण में मदद करता है।
(iii) यह RBC के निर्माण में भी सहायक है। (iv)
यह शुक्राणुओं(Sperm) के निर्माण में सहायक है। (v)
मांसपेशियों को वृद्धि प्रदान करता है।
v इन्सुलिन (Insulin) :-
यह अग्नाशय के लैंगरहेंस के द्विपिकाओं
के बीटा कोशिकाओं से स्रावित होता है।
कार्य :- (i) यह
ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित करता है। (ii) ग्लाइकोलाइसिस
की क्रिया में सहायक है।
(iii) यह रक्त में लिपिड तथा कोलेस्ट्राल की
मात्रा को कम करता है।
(iv) यह ग्लूकोज के आक्सीकरण में सहायक है।
Æ इसकी कमी से मधुमेह (Diabetes) नामक रोग होता है। इसकी अधिकता से हाइपोग्लाइसेमिया नामक रोग हो जाता है जिससे रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कम हो जाती है।
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